विशेष वृतान्त

डॉ. गेल ऑम्व्हेट और महिला सम्मान

कालू रामपुरे वरोरा शहर प्रतिनिधी

‌ डॉ. गेल ऑम्व्हेट और महिला सम्मान

अक्सर हमने देखा है कि भारत के प्रतिभाशाली युवक -युवतीया विदेशों और खास करके अमेरिका जैसे बेहद भौतिक सुख- सुविधा संपन्न देश मे जाकर अपना ज्ञान बेचते है तथा वही के निवासी हो जाते है, जिसे ‘ब्रेन ड्रेन’ कहते है।

लेकिन अमेरिका देश की एक बहुत ही प्रतिभाशाली युवती अपने युवावस्था में ही भारत आकर भारतीय सामाजिक, राजकीय, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक स्थिती का विस्तार से अध्ययन करके यही की कायम निवासी हो जाती है। और अपना पूरा जीवन गरीब, शोषित, आदिवासी, दलित,शेतकरी, शेतमजूर, मिल मजदूर, विधवा और परित्यक्ता औरतौं के हक के लिये संघर्ष करती हुई बिताती है। इस अत्यंत अत्यंत प्रतिभाशाली युवती को हम डॉ. गेल ऑम्व्हेट उर्फ डॉ. शलाका पाटणकर के नाम से जानते है।

 

डॉ. गेल ऑम्व्हेट को आंतरराष्ट्रीय स्तर की समाजशास्त्रज्ञ, भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता और बहुत ही तेज- तर्रार लेखिका के रूप मे जाना जाता है। डॉ. गेल ऑम्व्हेट का जन्म अमेरिका मे 2 अगस्त 1941 को एक संपन्न राजकीय परिवार मे हुआ। अपने एम. ए. और पीएच.डी. की पढाई का शीर्षक ‘भारत की जाती व्यवस्था'(Casts in India) और ‘ब्रिटिश काल मे भारत में हुए सांस्कृतिक बंड’ (Cultural Revolt in a colonial society. The Non- Brahmin Movement in Western India) के अधिक संशोधन के लिए मात्र 23 साल की उम्र मे, वर्ष 1963 मे अमेरिका से भारत आती है।

 

अपनी थीसीस के संशोधन के लिए वह महाराष्ट्र के गाव-गाव, कोने-कोने में भ्रमण करती है। सत्यशोधक समाज के कई कार्यकर्ता, नेताओं के साथ मुलाकात करती है। आदिवासी पाडे, गाव, बस्तियों को कभी मिलों तक पैदल चलके तो कभी बैलगाडी पे सवार होके भेट देती है।

महाराष्ट्र मे उनकी मुलाकात युक्रांद, मागोवा, दलित पॅंथर जैसी संघटनाओंसे हो जाती है। भारत के युवा सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. भारत पाटणकर के साथ 1976 में विवाह करके सांगली जिल्हे के कासेगाव में सामान्य सुविधाओंसे दोस्ती करती है।

 

अपना पुरा जीवन शोषित, पीडित, आदिवासी, दलित, मजदूर, किसान,भूमिहीन, धरणग्रस्त एवं विधवा और परीत्यक्ता स्त्रियों के हक्कों के संघर्ष के लिये समर्पित करती है। अपनी सास इंदूमती पाटणकर जो की 1942 की स्वतंत्रता संग्राम विरांगणा थी, और पती डॉ. भारत पाटणकर के कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलन मे बढ-चढकर योगदान देती है।

 

सन 1975 मे पुणे मे आयोजित भारत की पहली ‘स्त्रीमुक्ती परिषद’ मे क्रियाशील सहभागी होकर सामान्य भारतीय महिलाओंको दुनिया भर के और खासकर के अमेरिका और युरोप में उस वक्त चल रहे स्त्री आंदोलनोंके बारे मे जानकारी देना हो, अहमदनगर जिल्हे के ‘विटा’ गाव मे परित्यक्ता स्त्रियों की परिषद का आयोजन हो, 1981 मे शेतकरी संघटना के नेते शरद जोशी के साथ मिलकर खेत उत्पादन और नगदी फसल के भाव बढाने के लिए किया गया किसान आंदोलन हो, नर्मदा नदी क्षेत्र के धरणग्रस्त लोगों के पुनर्वसन को लेकर आंदोलन चलाना हो, महंगाई के खिलाफ मोर्चा निकालना हो, ‘श्रमिक मुक्ती दल’ के अंतर्गत सन 1986 में चांदवड मे ‘किसान महिला परिषद’ का आयोजन करके ग्रामीण क्षेत्र के किसान महिलाओं के लिए ‘सीता शेती’ और ‘लक्ष्मी मुक्ती’ जैसे उपक्रम का आयोजन करके ‘सामूहिक और सेंद्रिय खेती’ को अंमल मे लाना तथा जमीन औरतों के नाम कर उन्हे आर्थिक तथा पितृसत्ताक गुलामगिरी से मुक्त कराने के लिए कदम बढाना हो, या परित्यक्ता और विधवाओं को खुद के नाम पे घर प्राप्त करने के लिए और उनके बच्चों को उनका नाम देने के लिए संघर्ष करना हो, या श्रमिक मुक्ती दल के नेतृत्व में पश्चिम महाराष्ट्र मे अकाल निर्मूलन आंदोलन, समान पाणी वाटप आंदोलन या पंढरपूरमे विठ्ठल- रखुमाई मुक्ती आंदोलन हो, जुल्म के खिलाफ आवाज उठानेवाले सामाजिक अभियानों में डॉ. गेल ऑम्व्हेट बढ -चढकर हिस्सा लेती।

इसके साथ साथ मराठवाडा विद्यापीठ, औरंगाबाद को डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर का नाम देने के लिए चलाये गये आंदोलन मे, ओबीसी आरक्षण के लिये मंडल आयोग को अंमल मे लाने के लिए चलाये गये आंदोलन मे, राजकीय सत्ताप्राप्ति के लिए महिलाओं के लिए संसद मे आरक्षण प्राप्ति के लिए चलाये राजकीय आंदोलन मे उनका क्रियाशील सहभाग था।

उनका मानना था की जातीव्यवस्था, वर्गव्यवस्था पितृसताक कुटुंब व्यवस्था तथा स्त्रियों का भूमिहीन होना औरतों के मानसिक, शारीरिक तथा सामाजिक और आर्थिक शोषण के लिए जिम्मेदार घटक है। अपने इन विचारों को उन्होने कई राष्ट्रीय- आंतरराष्ट्रीय नियतकालिकों और EPW में लेखमाला चलाकर प्रकट किया। इन मुद्दों पर अधिक प्रकाश डालने के लिए उन्होने ‘We will Smash This Prison’, Dalits and Democratic Revolution’, ‘Violence against Women’, ‘Understanding Caste’, ‘Caste, Class, Gender and Land in India’ जैसे कई अत्यंत अभ्यासपूर्ण किताबों का लेखन किया।

भारत की विभिन्न समस्याएं जैसे भुखमरी, गरीबी,अंधश्रद्धा, भ्रष्टाचार, हिंसाचार, अनैतिकता, लैंगिक शोषण, वर्चस्ववाद इनका हल मार्क्सवाद से ज्यादा बुद्धिझम और आंबेडकरवाद में ही मिलेगा इस सिद्धांत पर वह बहुत चुकी थी। अपनी विचारों की पुष्टी के लिए उन्होने ‘Buddhism in India’, ‘Ambedkar towards Enlightened India’, ‘Ambedkar and Beyond’, ‘New social Movements in India’ जैसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण किताबों का निर्माण करके, अपने पती डॉ.भारत पाटणकर के साथ ‘बुद्धधम्म’ का स्वीकार किया।

 

14 वी शताब्दी के संत रविदास ने एक दुःख मुक्त शहर का सपना देखा था। ‘बेगमपुरा’ नाम के कविता मे संत रविदास ने ऐसा कल्पितादर्श प्रकट किया, जहा कोई उच्च-नीच भेदभाव नही हो, हर कोई आदमी सडक पर आजाद घुम सकता हो, पसंदीदा काम कर सकता हो, अपने भावों को व्यक्त कर सकता हो,कोई किसी पर जुल्म नही ढाता हो।

डॉ. गेल ने इसी कल्पितादर्श को उजागर करते हुए 500 साल पुराने भारत के दबे कुचले समाज के विद्वान, समाजसुधारक, विचारवंतो तथा संतों की विचारधारा को ‘Seeking Begampura’ नाम के किताब मे संत रविदास से लेकर कबीर, तुकाराम, नामदेव, जनाबाई, चोखामेला जैसे संत और पंडिता रमाबाई, कर्ताभज, इयोथी थास, पेरियार रामस्वामी,महात्मा फुले और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के जातीमुक्त समाज के कल्पितादर्श को एकत्रीत किया।

प्राचीन काल के विचारवंत, भारत के भक्ति संप्रदाय, उनकी अलग अलग विचारधाराये, अठारह- उन्नीसबी शताब्दी के समाजसुधारक, भारत का स्वतंत्रता संग्राम तथा आधुनिक काल के राजकीय पक्ष और उनकी विचारधारा, राजकीय नेता और उनकी कार्यप्रणाली का डॉ. गेल ऑम्व्हेट ने बहुत ही बारीकीसे निरीक्षण और अध्ययन किया था।

महात्मा जोतिराव फुले को वह ‘सामाजिक क्रांती के अग्रदूत’ के रूप मे परिचित कराती है।

 

अंतरराष्ट्रीय स्तर की जानी-मानी समाजशास्त्रज्ञ, अमेरिका जैसे संपन्न देश के राजकीय परिवार मे जन्म होने के बावजूद उनका जीवन-यापन बहुत ही सामान्य था। पुणे के सावित्रीबाई फुले विद्यापीठ तथा दिल्ली के नेहरू लायब्ररी मे प्रोफेसर के तौर पर उन्होंने कुछ साल काम किया।

कासेगाव जैसे देहात मे रहते हुए कई असुविधाओंको उन्होंने खुशी- खुशी स्वीकार किया था।

 

गाव से खचाखच भरी सरकारी बस मे सफर करते वक्त औरतों के साथ कोई छेडखानी ना हो इसलिये डॉ. गेल और इंदुताई बस के दरवाजे पर खडी रहकर सुरक्षा प्रदान करती। महिलाओं की सुरक्षा, उनका आत्मसमान और उनकी आत्मनिर्भरता को लेकर वह बडी ही सजग थी।

 

डॉ. गेल ऑम्व्हेट ने शैक्षणिक और सामाजिक- राजकीय तौर पर कीये कार्यों का मूल्यमापन अगर एक वाक्य मे करना हो तो ‘मानव ने मानव के साथ मानवता का व्यवहार करना चाहिये’ यही था।

उच्च जाती द्वारा निचले जात का शोषण ना हो, उच्चवर्ग द्वारा कनिष्ठ वर्ग का अनादर ना हो, बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यांकों के अधिकारों का हनन ना हो, और जाती के, वर्ण के, पितृसत्ता के आड में पुरुषों द्वारा महिलाओं का लैंगिक तथा मानसिक-आर्थिक शोषण ना हो।

 

आज भारत को स्वतंत्रता प्राप्त करके 78 वर्ष बितने के बाद भी, ‘क्रांती का महिना’ अगस्त महिने मे ही हुए बदलापूर कांड, कोल्हापूर कांड, कोलकत्ता के ट्रेनी लेडी डॉक्टर का लैंगिक शोषण और हत्याकांड जैसी घटनाओं के बाद मन भयकंपित होता है।

इंदुताई और डॉ. गेल ने महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चलाये अभियानों को याद करके मन भावूक होता है।

आज 25 अगस्त 2024, डॉ. गेल ऑम्व्हेट के तिसरे पुण्यस्मरण पर उनको याद करते हुए मन बार बार कहता है,

भय इथले संपत नाही

मज तुझी आठवण येते

मी संध्याकाळी गातो

तू मला शिकविली गीते

 

डॉ. गेल ऑम्व्हेट के स्मृतीयों को शत: शत: नमन।

 

 

‌‌ सुजाता जनार्धन कांबळे

वरोरा, जिल्हा चंद्रपूर

9404122355

(लेखिका शिक्षिका तथा नागपूर विद्यापीठ की राज्यशास्त्र विषय की संशोधक विद्यार्थी है)

 

 

 

 

 

 

 

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